अनुप्रयुक्त भू-आकृति विज्ञान/Applied Geomorphology

अनुप्रयुक्त भू-आकृति विज्ञान
Applied Geomorphology



                   व्यावहारिक भूआकृति विज्ञान का विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद हुआ है। डब्ल्यू.एम.डेविस, बाल्थर पेंक और एल.सी. किंग जैसे भूगोलवेताओं ने भूआकृति विज्ञान का विकास दार्शनिक एवं सैद्धांतिक तत्वों के आधार पर किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मात्र वही विषय जीवित रह सके जो प्रत्यक्ष उपयोगिता रखता था या वे विषय जिन्होंने समय के अनुसार अपने विषय वस्तु में परिवर्तन कर लिया। इसी का परिणाम था कि भूआकृति विज्ञान में अनुप्रयुक्त भूआकृति विज्ञान का विकास किया गया। इसके कारण भू आकृति विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व और बढ़ गयी।
                  व्यावहारिक भूआकृति विज्ञान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग थॉर्नबरी महोदय के द्वारा 1954 ई० में किया गया था। उन्होंने 1954 में "प्रिंसिपल्स ऑफ ज्योमॉरफोलोजी" नामक पुस्तक लिखा जिसके अंत में एक अध्याय था जिसका शीर्षक 'व्यावहारिक भू आकृति विज्ञान' था। थॉर्नबरी महोदय ने कहा कि "भूआकृति विज्ञान का अध्ययन मात्र सजावट की भाँति है। यदि इसके व्यावहारिक पक्ष को स्थापित नहीं किया गया तो यह अजयघर की वस्तु हो जाएगी।" थॉर्नबरी की इस चेतावनी को ध्यान में रखते हुए 1956 में अंतरराष्ट्रीय भौगोलिक यूनियन एक समिति का गठन किया इसी तरह 1968 में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के द्वारा भी एक आयोग का गठन किया गया। इन दोनों आयोगों ने भूआकृति विज्ञान के उपयोग के संबंध में एक समान विचार प्रकट किए। इन दोनों ने सिफारिश किया कि व्यवहारिक भूआकृति विज्ञान का अध्ययन एवं अध्यापन अनिवार्य रूप से कराया जाना चाहिए। 1960 -70 के दशक में कनाडा, जर्मनी, इंग्लैंड, पूर्व सोवियत संघ और जापान जैसे देशों में अध्ययन अध्यापन का कार्य प्रारंभ हो गया। भारत में इसका अध्ययन 1980 के दशक से माना जाता है। इसका श्रेय पूणा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दीक्षित और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सविंद्र सिंह को जाता है। इसके अलावे दिल्ली स्कूल आफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर एस.के. पाल का विशेष योगदान है।
               जर्मनी के प्रोफेसर ब्रून्स डेन ने 1985 ई० में भू आकृति विज्ञान के सर्वाधिक मान्यता प्राप्त परिभाषा प्रस्तुत किया। यह परिभाषा आर.जे.जोहानटन के द्वारा प्रतिपादित पुस्तक "द फ्यूचर ऑफ ज्योग्राफी" में प्रकाशित हुआ। ब्रून्स डेन ने अपनी परिभाषा एक अनुसंधान प्रपत्र में "ज्योमोरफोलॉजी इन द साइंस ऑफ सोसाइटी" के रूप में प्रस्तुत किया था। इस अनुसंधान प्रपत्र को ही जॉनस्टन महोदय ने अपनी पुस्तक में शामिल किया था।

ब्रून्स डेन - "व्यावहारिक भू आकृति विज्ञान एक ऐसा विषय वस्तु है जो स्थलाकृति विशेषताओं की सूचनाओं के आधार पर पृथ्वी के सीमित संसाधनों की खोज, मूल्यांकन, प्रबंधन तथा उनके संरक्षण में सहायक होता है। इसके अध्ययन के द्वारा पर्यावरण का पतन तथा प्राकृतिक विपदाओं के संभावनाओं का आकलन कर प्रभाव को कम किया जा सकता है।"
                                     जब से भूगोल में सुदूर संवेदन प्रणाली का प्रयोग किया जाने लगा है तब से भूआकृति विज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग को और बढ़ावा मिला है। इस नवीन तकनीक के द्वारा भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) का विकास किया गया है। जिससे भूआकृति विज्ञान के व्यवहारिक प्रयोग में व्यावहारिकता का आगमन हुआ है।

व्यावहारिक भू आकृति विज्ञान की विषय वस्तु

                                           Verstaphen महोदय ने अनुप्रयुक्त भू आकृति विज्ञान के 6 विषय वस्तु का उल्लेख किया है -
(1) प्राकृतिक संसाधनों का स्थलाकृतिक मानचित्र तथा सभी प्रकार के तथ्यों से पूर्ण मानचित्र का निर्माण करना - इन दोनों ही कार्यों के लिए उच्चावच का अध्ययन अनिवार्य है। इसका अध्ययन भूआकृति विज्ञान में ही होता है। उच्चावच के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि किस ऊँचाई पर किस प्रकार के वृक्ष या कृषि कार्य किया जा सकता है। अधिक उच्चावच वाले क्षेत्र में तीव्र अपरदन की संभावना है। ऐसे में अनुप्रयुक्त भूआकृति विज्ञान अधिक उच्चावच वाले क्षेत्रों का मानचित्रण कर लोगों को सचेत कर सकता है।
(2) प्राकृतिक विपदाओं (जैसे -भूस्खलन, हिमस्खलन, भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखी क्रिया, बाढ़, सुखाड़) का वैज्ञानिक विश्लेषण भू आकृति विज्ञान में किया जाता है। ऐसे में इनका पूर्ण अध्ययन कर मानव एवं अन्य जीवों पर पड़ने वाले प्रभाव को कम किया जा सकता है।
(3) स्थलाकृति विकास की प्रक्रियाओं का प्रभाव ग्रामीण विकास और नियोजन के कार्यों पर पड़ता है। ऐसे में ग्रामीण विकास और नियोजन कार्य प्रारंभ करने के पहले स्थलाकृतिक विकास का अध्ययन अनिवार्य है।
(4) नगरीय योजनाएँ भी व्यवहारिक भू आकृति विज्ञान के अंग है। अर्थात नगर उसी स्थान पर विकसित होते हैं जहाँ पर स्थलाकृतिक परिस्थितियाँ विकास में मदद करती है।
(5) व्यवहारिक भू आकृति विज्ञान का अध्ययन खनन क्रिया को प्रारंभ करने के लिए या खनन कार्य के संभावित क्षेत्रों के सीमांकन के लिए अत्यंत ही आवश्यक है।
(6) व्यावहारिक भू आकृति विज्ञान का अध्ययन अभियंताओं के लिए भी आवश्यक है। जैसे - नदियों पर बाँध बनाने में, अन्य जलाशयों के निर्माण में भू आकृति विज्ञान का अध्ययन अनिवार्य हो जाता है।
                          ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि व्यावहारिक भू आकृति विज्ञान एक उपयोगी विज्ञान है और यह अपना पहचान धीरे-धीरे स्थापित कर रहा है। वर्सटापेन के अलावे भारतीय भूगोलवेताओं ने इसके 8 विषय वस्तु निर्धारित किये हैं। जैसे :-

(1) भू-आकृति तथा खनन कार्य
(2) भू-आकृति तथा इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट
(3) भू-आकृति विज्ञान तथा भूमिगत जल का अध्ययन
(4) भू-आकृति विज्ञान तथा तटीय स्थलाकृति का अध्ययन
(5) भू-आकृति विज्ञान तथा भूमि उपयोग
(6) भू-आकृति विज्ञान तथा पर्यावरण प्रबंधन
(7) भू-आकृति विज्ञान तथा प्रादेशिक विकास
(8) भू-आकृति विज्ञान तथा सैन्य क्षेत्र

(1) भू-आकृति तथा खनन कार्य - व्यवहारिक भू-आकृति वैज्ञानिकों की अवधारणा है कि भू-आकृति का वृहद अध्ययन खनिजों के संभावित क्षेत्र और उसके उपयोग की संभावनाओं को बता सकता है। सुदूर संवेदन प्रणाली इस कार्य में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। जैसे यदि कोई प्रदेश मंद रूप से वलित हो और उसके विभिन्न स्तरों में चुना प्रधान चट्टान पाए जा रहे हैं तो वहां पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस मिलने की संभावना होती है। जैसे भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर खनिज तेल की खोज की गई थी।
                               यदि जलोढ़ प्रक्रिया का सही अध्ययन किया गया हो तो यह बताया जा सकता है कि किस नदी में किस प्रकार के खनिज मिल सकते हैं? औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने स्वर्ण रेखा और कोयल नदी के स्रोत क्षेत्र का अध्ययन कर यह बताया था कि इन नदियों के बालू में सोना पाए जाते हैं।
                                  ऋतुक्षरण प्रक्रिया और ऋतुक्षरण के प्रभाव क्षेत्र के आधार पर खनन संभावनाओं को बताया जा सकता है। जैसे- यदि लैटेराइट संरचना के क्षेत्र का अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उसमें अपक्षालन(Leaching) की क्रिया अधिक होती है जिसके तहत लोहा एवं एल्युमिनियम जैसे खनिज पदार्थ के संचित भंडार मिलने की संभावना होती है।

(2) भू-आकृति तथा इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट - भूआकृति विज्ञान इंजीनियरिंग कार्य और भूमिगत जल संसाधन के निर्धारण में भी मदद करता है। जैसे- अभियंता लोग बड़े-बड़े बांधों का निर्माण उन्हीं क्षेत्रों में करना पसंद करती है जिस प्रदेश की ढाल तीव्र हो और नदी घाटियाँ सँकरी हो। इसी तरह आस्ट्रेलिया में अर्टिजियन उत्सुप्त कूआँ विशिष्ट भौगोलिक आकृति के कारण ही पाए जाते हैं।
                   भू आकृति विज्ञान के आधार पर तटीय स्थलाकृतियों का अध्ययन किया जा सकता है और बड़े बंदरगाहों के निर्माण की संभावनाएं ढूँढ़ी जा सकती है।
भू आकृति विज्ञान के अध्ययन कर भूमि उपयोग और पर्यावरण प्रबंधन तथा प्रादेशिक विकास में संतुलन स्थापित किया जा सकता है।
                   अक्सर सेनाओं को विषम भौगोलिक प्रदेशों में कार्य करना पड़ता है। ऐसे में प्रादेशिक भू आकृति विज्ञान का अध्ययन उनके लिए अनिवार्य है।

सम्म (Schumm) महोदय ने भूआकृति विज्ञान के तीन उपयोग जलोढ़ स्थलाकृति का अध्ययन कर बताया है। इसी तरह से अनुप्रयुक्त भूआकृति विज्ञान में नित्य-प्रतिदिन नए-नए महत्त्व सामने उभरकर आ रहे हैं।

निष्कर्ष :- अतः ऊपर के तथ्यों से स्पष्ट है कि भू-आकृति विज्ञान का यह नवीन शाखा कार्यिक महत्व रखने के कारण आने वाले वर्षों में अंतर विषय विषय-वस्तु के रूप में और भी महत्व प्राप्त कर सकता है।


Read More :

Origin Of The Earth/पृथ्वी की  उत्पति

Internal Structure of The Earth/पृथ्वी की आंतरिक संरचना 

भुसन्नत्ति पर्वतोत्पत्ति सिद्धांत- कोबर (GEOSYNCLINE OROGEN THEORY- KOBER)

Convection Current Theory of Holmes /होम्स का संवहन तरंग सिद्धांत




Volcanic Landforms /ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित स्थलाकृति

Earthquake/भूकम्प

Earthquake Region in India/ भारत में भूकम्पीय क्षेत्र 

CYCLE OF EROSION (अपरदन चक्र)- By- W.M. DEVIS

River Landforms/नदी द्वारा निर्मित स्थलाकृति

हिमानी प्रक्रम और स्थलरुप (GLACIAL PROCESS AND LANDFORMS)

पवन द्वारा निर्मित स्थलाकृति/शुष्क स्थलाकृति/Arid Topography

समुद्र तटीय स्थलाकृति/Coastal Topography

अनुप्रयुक्त भू-आकृति विज्ञान/Applied Geomorphology

No comments

Recent Post

11. नगरीय प्रभाव क्षेत्र

11. नगरीय प्रभाव क्षेत्र नगरीय प्रभाव क्षेत्र⇒            नगर प्रभाव क्षेत्र का सामान्य तात्पर्य उस भौगोलिक प्रदेश से है जो किसी नगर के सीमा...