11. नगरीय प्रभाव क्षेत्र
11. नगरीय प्रभाव क्षेत्र
नगरीय प्रभाव क्षेत्र⇒
नगर प्रभाव क्षेत्र का सामान्य तात्पर्य उस भौगोलिक प्रदेश से है जो किसी नगर के सीमा के बाहर अवस्थित है किंतु आर्थिक और सामाजिक कार्यों के लिए वह नगर पर निर्भर करता है। नगर भी कई प्रकार के कार्यों के लिए अपने आसपास के क्षेत्रों पर निर्भर करता है। जैफरसन महोदय ने उचित ही लिखा है कि नगर का विकास अपने आप नहीं होता है उनके विकास का आधार आसपास का ग्रामीण क्षेत्र निर्धारित करता है। Geddies तथा Smailes जैसे ब्रिटिश भूगोलवेत्ताओं की अवधारणा है कि नगर के बसाव स्थल (site) का विकास उसकी बसाव स्थिति (situation) पर निर्भर करता है। बसाव स्थिति ही नगर का प्रभाव क्षेत्र है।
नगर प्रभाव क्षेत्र शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग नॉर्दन महोदय ने पिछली शताब्दी के पाँचवें दशक के मध्य में किया था लेकिन उसके पूर्व भी नगर प्रभाव क्षेत्र का अध्ययन होता रहा था, लेकिन "नगर प्रभाव क्षेत्र" के बदले अमलैंड शब्द का अधिक प्रयोग होता था, यह जर्मन शब्द है जहाँ (अम) का अर्थ होता है चारों तरफ और लैंड का अर्थ भूमि अर्थात् नगर के चारों तरफ की भूमि जो नगर का प्रभाव क्षेत्र है। अमलैंड शब्द का विकास सर्वप्रथम (Alics) महोदय द्वारा 1914 ई० में किया गया। इसके बाद इस शब्द का प्रयोग Stanley, Dodge, Whittlesey और Harris जैसे विद्वानों ने किया। ब्रिटिश भूगोलवेत्ता ग्रीन ने नगरीय पृष्ठ (Urban Hinteland) प्रदेश शब्द का प्रारंभ में प्रयोग किया, लेकिन बाद में उन्होंने नगर प्रभाव क्षेत्र का प्रयोग किया। ब्रिटिश भूगोलवेत्ता Smailes तथा Gilbert) ने नगर क्षेत्र (Urban field) शब्द का प्रयोग किया लेकिन नगरीय भूगोल में द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व अमलैंड और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद नगर प्रभाव क्षेत्र को सर्वाधिक मान्यता मिली। 1970 के बाद नगरीय भूगोलवेत्ताओं द्वारा और मुख्यतः विकासशील देश के भूगोलवेत्ताओं द्वारा नगर प्रदेश शब्द का प्रयोग प्रमुखतया से किया जाता है। यद्यपि ये तीनों शब्द अमलैंड, नगर प्रभाव क्षेत्र, नगर प्रदेश एक ही संदर्भ में उपयोग किए जाते है लेकिन कार्यिक दृष्टि से तथा विधितंत्र के दृष्टि से उनमें अंतर है। अमलैंड शब्द का विकास नगर के कार्यों के प्रभाव पर आधारित है। नगर प्रभाव क्षेत्र का विकास गुरुत्वाकर्षण मॉडल पर आधारित है। जबकि नगर प्रदेश, नियोजन को ध्यान में रखकर प्रभाव क्षेत्र के बदले विकसित किया गया है। नगर प्रदेश के अंतर्गत न सिर्फ प्रभाव क्षेत्र आते है वरन् नगर को भी सम्मिलित किया जाता है।
सीमांकन की विधि:
सीमांकन की तीन प्रमुख विधियाँ है-
1. अनुभवाश्रित विधि
2. सांख्यिकी विधि
3. सांख्यिकी सह अनुभवाश्रित विधि
द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व अनुभवाश्रित विधि की प्रधानता थी। इसके अंतर्गत नगर के कार्यों को आधार मानकर प्रमुख क्षेत्र सीमांकित किया जाता था। इस संदर्भ में अमेरिकी भूगोलवेत्ता (Harris) का कार्य महत्वपूर्ण है। उन्होंने अमेरिकी नगर (Salt Lake city) के अमलैंड का सीमांकन 12 कार्यिक चरों की मदद से किया था।
ये निम्नलिखित थे-
1. थोक व्यापार
2. खुदरा व्यापार
3. रेडियो प्रसारण (Radio Broad casting
4. बस सेवा (Bus service)
5. मंदिर परिसर (Temple Areas)
6. चिकित्सा सेवा (Medical service)
7. धार्मिक सेवा (Religious service)
8. प्रशासनिक सेवा (Administrative service)
9. समाचार पत्र का वितरण (News paper circulation)
10. शैक्षणिक सेवा (Educational service)
11. फल एवं सब्जी की उपलब्धता (Fruits and vegitables availability to the market)
12. अन्न (Grains)
इन चरों को आधार मान कर नगर के प्रभाव क्षेत्र की बाहरी सीमा निर्धारित की गई। कई भारतीय भूगोलवेत्ताओं ने भी अनुभवाश्रित विधि का प्रयोग करते हुए भारतीय नगरों का सीमांकन किया है, लेकिन इनका कार्य द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही संभव हो सका। वस्तुतः भारत के नगरीय भूगोल की पढ़ाई द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रारंभ हुई। भारतीय भूगोलवेत्ताओं में R.L. Singh (B.H.U.) प्रथम थे; जिन्होंने 1955 में बनारस नगर का अमलैंड पाँच चरों की मदद से निर्धारित किया था। ये चर निम्नलिखित थे-
1. सब्जी आपूर्ति (Vegitable supply)
2. दूध आपूर्ति (Milk supply)
3. खाद्यान्न आपूर्ति (Grain supply)
4. बस सेवा (Bus service)
5. समाचार पत्र का वितरण (News paper circulation)
पुनः Dr.Uzagir singh में 1961 में KAVAL (A-ALLAHABAD, K-KANPUR, V-VARANASI, A-AGRA, L-LUCKNOW) नगरों के अमलैंड का सीमांकन किया। इसके लिए उन्होंने निम्नलिखित सात चरों का प्रयोग किया।
1. सब्जी आपूर्ति
2. दूध आपूर्ति
3. कॉलेज विश्वविद्यालय (College service)
4. खाद्यान्न आपूर्ति
5. खुदरा व्यापार
6. थोक व्यापार
7. प्रशासनिक प्रभाव
R.L. Singh की तुलना में यह ज्यादा विश्वसनीय कार्य था। यद्यपि इस विधि को व्यापक मान्यता प्राप्त थी लेकिन इसके साथ दो प्रमुख समस्याएँ थी-
प्रथमत: एक ही नगर के लिए अलग-अलग भूगोलवेताओं द्वारा अलग-अलग प्रभाव क्षेत्र निर्धारित किया जा रहा था। इससे इस प्रकार की अध्ययन की विश्वसनीयता में कमी आती थी।
इसकी दुसरी समस्या यह थी कि कई नगर कुछ कार्यों का व्यापक स्तर पर करते थे जबकि सही अर्थों में इसका प्रभाव क्षेत्र उतना वृहद और व्यापक नहीं होता है। वस्तुतः Dr. B. L. Singh ने इसी आलोचना को ध्यान में रखकर बनारस के धार्मिक कार्यों को आधार नहीं माना था।
अतः द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद मात्रात्मक क्रांति के प्रभाव में नगरीय भूगोलवेताओं ने गुरुत्वाकर्षण मॉडल का प्रयोग करते हुए नगर के प्रभाव क्षेत्र को सीमांकित करने का कार्य प्रारंभ किया। इस विधि के अंतर्गत यह माना गया कि नगर की जनसंख्या द्रव्यमान अथवा पिंड के समान है। जो भी पिंड जितना ही बड़ा होगा उसका गुरुत्वाकर्षण उतना ही अधिक होगा। नॉर्दन से इस अवधारणा को विकसित किया कि नगर की जनसंख्या गुरुत्वाकर्षण का कार्य करती है दूसरे नगरों के द्रव्यमान के संदर्भ में बड़े नगर का प्रभाव क्षेत्र सीमांकित किया जा सकता है। रेली महोदय ने संशोधित गुरुत्वाकर्षण सूत्र विकसित किया जिसे भूगोलवेताओं ने व्यापक मान्यता दी। यह मॉडल इस प्रकार है-
P = MA X MB/d2
P = Point of Break सीमा
MA= द्रव्यमान >MB
MB= द्रव्यमान <MA
d = दो द्रव्यमानों के बीच की दुरी
इस विधि के अपनाने से सीमांकित किये गये नगरीय क्षेत्र की उपयोगिता में वृद्धि होती है। नगर और प्रादेशिक नियोजकों द्वारा इसका प्रयोग किया जाने लगा। प्रसिद्ध भूगोलवेता प्रकाश राव का अनुसरण करते हुए L.N. Sen ने कर्नाटक के रायचूर जिला के केन्द्रीय बस्तियों का प्रमुख क्षेत्र के सीमांकन हेतु दिए गये सांख्यिकी विधि का प्रयोग किया था।जिसका प्रयोग
R = √T x A/U
R = Radius
T = Population of Town
U = Total population of of the region
A = Area of the region
इसी विधि का प्रयोग प्रो० I.A.Bhatt ने भी हरियाणा के करनाल जिला के प्रभाव क्षेत्र के सीमांकन के लिए किया। लेकिन विकासशील देशों में डिकिंसन, हैगिस, और हैगेट द्वारा प्रदेश शब्द को 1970 के बाद अधिक मान्यता मिली है। नगर प्रदेश का सीमांकन मात्रात्मक सह अनुभवाश्रित विधि पर आधारित है। दूसरे शब्दों में यह विधि प्रदेश के लोगों के व्यवहार तथा परिवहन साधनों के विकास को ध्यान में रखते हुए सांख्यिकी विधि द्वारा विकसित सीमाओं में आवश्यक संशोधन करता है। भारत में राष्ट्रीय राजधानी प्रदेश का सीमांकन इसी विधि पर आधारित है। प्रथमतः गुरुत्वाकर्षण मॉडल के आधार पर सीमा निर्धारण के बाद कई चरों की मदद से उससे आवश्यक संशोधित किया गया। वस्तुतः इस कार्य के लिए 8 चरों का प्रयोग किया गया। ये निम्नलिखित थे-
1. 1961 की जनगणना के अनुसार न्यूनतम जनसंख्या घनत्व 250 व्यक्ति वर्ग किमी०।
2. 1951-61 के दशक के न्यूनतम जनसंख्या वृद्धि दर 20%
3. कम-से-कम 30% कार्यिक जनसंख्या गैर-कृषि कार्यों में लगी हो।
4. वे सभी गाँव जो दिल्ली को प्रतिदिन दूध की आपूर्ति करते हैं।
5. वे सभी गांव जो दिल्ली के लिए प्रतिदिन ताजे सब्जी आपूर्ति करते हैं (1967)।
6. वे सभी बस्तियाँ जहाँ से प्रतिदिन कम-से-कम 1000 व्यक्ति बस द्वारा दिल्ली नगर आते है (1966)।
7. वे सभी बस्तियाँ जहाँ से कम-से-कम 250 व्यक्ति रेल द्वारा दिल्ली नगर आते है (1966)।
8. वे सभी बस्तियाँ जहाँ से प्रतिदिन कम-से-कम 75 कॉल दिल्ली नगर आता है (1966)।
इन चरों की मदद से गुरूत्वाकर्षण विधि द्वारा अपनाए गए सीमाओं में संशोधन किए गए। सामान्यतः यह पाया गया कि रेलमार्ग और सड़कमार्ग के किनारे प्रभाव क्षेत्र अधिक दूरी तक अवस्थित है। कुल मिलाकर इसके प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत 30242 वर्ग किमी० क्षेत्र आए। दिल्ली नगर से औसत दूरी 115 किमी० हुई और इस प्रभाव क्षेत्र के अंतर्गत 1981 की जनगणना के अनुसार दिल्ली के अतिरिक्त अन्य नगरीय बस्तियाँ और करीब 2000 ग्रामीण बस्तियाँ आई। फरीदाबाद, गुड़गांव, रोहतक, महेन्द्रनगर, सोनीपत और बहादुरगढ़ जैसी हरियाणा की बस्तियाँ इसके प्रभाव क्षेत्र में आई। राजस्थान का अलवर और यू०पी० का गाजियाबाद, बुंदेलखंड, मेरठ, हापुड़, मोदीनगर और दादर जैसी नगरीय बस्तियाँ इसके प्रभाव में आये।
दिल्ली नगर प्रदेश के सीमांकन से यह एक नियोजन देश के रूप में मान्यता पा चुका है। भारत के सभी महानगरों के लिए इस प्रकार का नगर प्रदेश सीमांकन और नियोजन की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है। विकासशील देशों के अधिकतर महानगरों के लिए भी यह प्रक्रिया अपनाई गई है। वस्तुतः वर्तमान समय में विकसित देशों में नगर प्रभाव क्षेत्र और विकासशील देशों में नगर प्रदेश शब्द को अधिक मान्यता प्राप्त है।
विशेषताएँ: भौगोलिक विशेषताओं की दृष्टि से नगर प्रभाव क्षेत्र को दो भागों में बाँटते हैं-
1. आंतरिक प्रभाव क्षेत्र (प्राथमिक अमलैंड)
2. बाह्य प्रभाव क्षेत्र (द्वितीयक अमलैंड)
1. आंतरिक प्रभाव क्षेत्र:- आंतरिक प्रभाव क्षेत्र को प्राथमिक अमलैंड और बाह्य प्रभाव क्षेत्र को द्वितीयक अमलैंड कहा गया है। आंतरिक प्रभाव क्षेत्र वह है जो मुख्य नगर से सतत् संबंध रखता है। यह नगर के तत्काल बाहर ग्रामीण क्षेत्र में नगरीय, उपनगरीय अथवा लगभग नगरीय भूदृश्य उत्पन्न करता है। अधिकतर भूगोलवेत्ताओं ने इसी प्रदेश को ग्रामीण-नगरीय उपांत कहा है। नियमतः यह ग्रामीण क्षेत्र है लेकिन व्यवहारिक तौर पर यह नगरीय क्षेत्र होता है। सामान्यतः इसके आकार तारे के समान होते हैं। नगर के बाहर निकलती हुई सड़को के दोनों तरफ निर्मित क्षेत्र ही ग्रामीण-नगरीय उपांत का निर्माण करते है।
ग्रामीण-नगरीय उपांत का विकास मुख्यतः नगर में बढ़ते जनसंख्या दबाव का परिणाम होता है। जब नगरीय पारिस्थैतिकी असंतुलित होने लगती है तो नगर की सीमा के बाहर निर्मित क्षेत्र विकसित होने लगते है। इसमें मुख्यतः दो प्रकार के निर्मित क्षेत्र होते है-
1. उच्च आय वर्ग का क्षेत्र- उच्च आय वर्ग के लोग नगर के बहर आकर बस जाते है।
2. उन कार्यों का विकास होता है जिसको अधिक भूमि चाहिए नगर में मूल्य अधिक होने के कारण वह कार्य नहीं होता है जैसे विश्वविद्यालय का निर्माण, प्रशानिक कार्य, औधोगिक संकुल का विकास इत्यादि।
लेकिन विकासशील देशों में और मुख्यतः भारत में ग्रामीण-नगरीय उपांत के अंतर्गत दो अन्य निर्मित क्षेत्र होते है-
(i) उपस्तरीय अधिवासीय मकान- कम आय के वर्ग के लोग भी नगर के बाहरी क्षेत्र में भूमि खरीद कर किसी प्रकार मकान बनाते है।इसमें नगरीय विकास के नियमों के पालन नहीं होता है। अत: यह प्रारम्भ से ही देखने से मलिन बस्ती जैसा लगता है।
(ii) नवीन निर्मित क्षेत्रों के मध्य पुराने गावों का होना कम आय वर्ग के लोगों का दबाव, नगरीय निर्मित क्षेत्र के अंतर्गत आने पर तेजी से बढ़ने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि उसके ग्रामीण पारिस्थैतिकी भी समाप्त हो जाते हैं और वे नगर बनने के पूर्व ही मलिन बस्ती बन जाते हैं।
ग्रामीण-नगरीय उपांत की विशेषताओं का अध्ययन कई भूगोलवेत्ताओं ने विशेष रूप से किया है और पश्चिमी देशों के संदर्भ में R.F. Pahl का कार्य विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। उन्होंने ग्रामीण-नगरीय उपांत की चार प्रमुख विशेषताएँ बताई है-
1. विलगाव
2. चयनित जनसंख्या का आगमन और
3. अभिगमन लोग प्रतिदिन मुख्य नगर जाते है और शाम को लौट आते है। परिणाम यह होता है कि दिन के समय जनसंख्या घनत्व कम होता है तथा रात्रि में जनसंख्या घनत्व अधिक हो जाता है।
4. भूमि का मिश्रित उपयोग- H.M. Mayor ने अमेरिकी नगरों के संबंध में बताया है कि ग्रामीण नगरीय उपांत एक संक्रमण क्षेत्र होता है जहां नगरीय भू-उपयोग में लगातार वृद्धि होती रहती है और उसी अनुपात में ग्रामीण भू-उपयोग में कमी आती है। उन्होंने यह भी लगा कि यहाँ भूमि के मूल्य में लगातार वृद्धि होती है।
J.N.U. के प्रो० सुदेश नागिया ने 1976 में दिल्ली महानगर के ग्रामीण-नगरीय उपांत क्षेत्र का अध्ययन करते हुए इनकी निम्नलिखित छ: विशेषताएँ बताई है-
1. मलिन बस्तियाँ (Slums)
2. मिश्रित भू-उपयोग
3. कृषि भूमि में लगातार कमी आती है
4. नगरीय सुविधाओं का अभाव
5. बिखरे हुए निर्मित क्षेत्र
6. सांस्कृतिक मिश्रण का क्षेत्र (ग्रामीण-नगरीय संस्कृति के मिश्रण का क्षेत्र)
ग्रामीण-नगरीय उपांत की ये विशेषताएँ विकासशील देशों के प्रायः सभी महानगरों में पाई जाती है।
निर्मित क्षेत्र और कार्यिक दृष्टि से ये नगर के अंग होते है प्रारम्भ में इसे नगर नियोजन के अंतर्गत सम्मिलित नहीं किया गया था लेकिन वर्तमान समय में नगर प्रदेश नियोजन के अंतर्गगत इन प्रदेशों के भी नियोजित विकास को प्राथमिकता दी गई है।
2. बाह्य प्रभाव क्षेत्र- बाह्य प्रभाव क्षेत्र मूलत: ग्रामीण क्षेत्र होता है। यह वही क्षेत्र होता है जहाँ रहने वाले लोग कुछ ही कार्यों के लिए केंद्रीय नगर पर निर्भर करता है। ऐसे कार्यों में प्रशासन, उच्च शिक्षा, थोक व्यापार, उच्च स्तरीय चिकित्सा सुविधा, समाचार पत्र, इत्यादि प्रमुख है। अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन क्षेत्रों के लोग स्थानीय बाज़ार में जाते है। वहाँ पदानुक्रमिक केन्द्रीय बस्तियों के अपने प्रभाव क्षेत्र होते है। लेकिन वे छोटे नगरीय बस्ती भी मुख्य नगरीय बस्ती पर अपने कार्यों के लिए निर्भर करता है। जैसे गौण नगरीय बस्तियाँ खुदरा व्यापार का कार्य करती है। उनका थोक व्यापार मुख्य केन्द्रीय बस्ती पर निर्भर करता है। वर्तमान समय में नगर प्रदेश नियोजन नीति के अंतर्गत इन प्रदेशों में भी नगरीय सुविधाओं को विकसित कर ग्रामीण आवास की प्रक्रिया प्रारंभ की गई है। विकासशील देशों में बाह्य नगर प्रभाव क्षेत्र ग्रामीण-नगरीय स्थानांतरण का कारण होता है। दिल्ली नगर पर बाह्य नगर प्रभाव क्षेत्र की जनसंख्या का सर्वाधिक दबाव था लेकिन वर्तमान समय में राजधानी नियोजन प्रदेश के अंतर्गत बाह्य क्षेत्रों में द्वितीयक और तृतीयक कार्यों का विकास किया जा रहा है। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ग्रामीण-नगरीय स्थानांतरण प्रवृत्ति में कमी आई है। वास्तविकता यह है कि पिछले वर्षों के अंतर्गत दिल्ली महानगर में जनसंख्या का स्थानांतरण नगर प्रभाव क्षेत्र से कहीं अधिक अंतर प्रादेशिक प्रक्रियाओं से हुआ है।
निष्कर्ष:- ऊपर के तथ्यों और विश्लेषणों से स्पष्ट है कि अगर प्रभाव क्षेत्र का अध्ययन न सिर्फ भौगोलिक परिपेक्ष्य में आवश्यक है वरन् यह प्रादेशिक नियोजन के संदर्भ में भी आवश्यक है। अधिकतर विकासशील देशों में नगर आधारित प्रादेशिक नियोजन की नीति अपनाई गई है और उस कार्य में नगर प्रभाव क्षेत्र / नगर प्रदेश का सीमांकन अनिवार्य है।
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