10. शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात / Temperate Cyclone
10. शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात / Temperate Cyclone
शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात
चक्रवात को आँग्ल भाषा में Cyclone कहते है। "Cyclone" शब्द यूनानी भाषा से लिया जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ है- सर्प की अँगूली। इस शब्द का प्रयोग जलवायु विज्ञान में प्रथम बार पिडिंगटन महोदय ने किया था। चक्रवात उस वायुमंडलीय परिस्थिति को करते हैं जिनमें हवाएँ एक निम्न वायुदाब केन्द्र के चारों ओर घूमने की प्रवृति रखती है। चक्रवात में ज्यों ही किसी स्थान पर निम्न वायुदाब केन्द्र का निर्माण होता है त्यों ही उच्च वायुदाब केन्द्र से हवाएँ निम्न वायुदाब केन्द्र की ओर दौड़ने लगती है। उच्च वायुदाब केन्द्र से आने वाली हवाओं का मुख्य उद्देश्य निम्न वायुदाब को समाप्त करना होता है। लेकिन निम्न वायुदाब केन्द्र की ओर दौड़ने वाली हवाएँ पृथ्वी की घूर्णन गति के प्रभाव में आकार उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुई के विपरीत दिशा (Anti Clock Wise) में और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सूई की दिशा में घूमने लगती है।
प्रतिचक्रवात (Anti Cyclone)
चक्रवात का उल्टा प्रतिचक्रवात होता है। प्रतिचक्रवात के केन्द्र में एक उच्च दाब केन्द्र का निर्माण होता है और हवाएँ केन्द्र से बाहर की ओर निकलने की प्रवृति रखती है। उत्तरी गोलार्द्ध में प्रतिचक्रवात (Clock wise) और दक्षिणी गोलार्द्ध में Anti Clock wise घुमने की प्रवृति रखती हैं।
चक्रवात और प्रतिचक्रवात में अन्तर
(1) चक्रवात की स्थिति में निम्न वायुदाब केन्द्र और प्रतिचक्रवात की स्थिति में उच्च वायुदाब केन्द्र का निर्माण होता है।
(2) चक्रवात में हवा बाहर से केन्द्र की ओर आने की प्रवृति रखती है जबकि प्रतिचक्रवात में केन्द्र से बाहर की ओर जाने की प्रवृति रखती है।
(3) चक्रवात की स्थिति में परिवर्तन के फलस्वरूप बादल, वर्षण एवं तेज हवाएँ जैसी मौसमी परिस्थितियां उत्पन्न होती है। वहीं प्रतिचक्रवात की स्थिति में मौसम साफ होने की प्रवृति रखती है।
(4) चक्रवात के केन्द्र से हवाएँ नीचे से ऊपर की ओर उठने की प्रवृति रखती है जबकि प्रतिचक्रवात में हवाएँ ऊपर से नीचे की ओर बैठने की प्रवृत्ति रखती है।
(5) जिस स्थान पर चक्रवातीय स्थिति उत्पन्न होती है। ठीक उसके ऊपर प्रतिचक्रवातीय स्थिति उत्पन्न होती है।
अतः स्पष्ट है कि चक्रवात एवं प्रतिचक्रवात जलवायु विज्ञान की दो अलग-2 धारणाएँ है।
चक्रवात का वर्गीकरण
विशेषताओं एवं भौगोलिक स्थिति के आधार पर चक्रवात को दो भागों में बाँटते है -
(1) उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
(2) शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात
मध्य अक्षांशीय क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले चक्रवात को शीतोष्ण चक्रवात कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति का मुख्य आधार उपध्रुवीय निम्न वायु भार का क्षेत्र होता है क्योंकि इस निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर ध्रुवीय वायु और पछुवा वायु चलने की प्रवृति रखती है। ध्रुवों की ओर से आने वाली वायु प्राय: ठण्डी, भारी, और शुष्क होती है। जबकि पछुआ हवा गर्म, हल्की और आर्द्रता से युक्त होती है। विपरीत दिशाओं से आने वाली तथा अलग-2 भौतिक विशेषता रखने वाली वायु जब आपस में मिलने का प्रयास करती है तो मिश्रण शीघ्र संभव नहीं हो पाता है। इन दो वायु के अग्र भाग मिलकर एक संक्रमण की स्थिति उत्पन्न करते हैं। संक्रमण का यह क्षेत्र ही वाताग्र (Front) कहलाता है। दूसरे शब्दों में ध्रुवीय हवा और पछुआ हवा के अग्र भाग आपस में मिलकर जिस संक्रमण पेटी का निर्माण करते हैं। उस पेटी को वाताग्र कहते है। इसकी चौड़ाई सामान्यतः 5-7 Km तक होती है। कभी-2 इसकी चौड़ाई 2-75 Km तक होती है। धरातल से इसकी ऊँचाई 1½- 2m तक होती है और लम्बाई 750 Km तक हो सकती हैं। वाताग्र धरातल के साथ एक निश्चित कोण पर झुका होता है।
ध्रुवीय हवा (ठंडी, शुष्क, भारी
पछुआ हवा (गर्म, आर्द्र, हल्की)
वाताग्र (ल०- 750 किमी०, ऊँ०-1.5 किमी०, चौ०-5-7 किमी०)
शीतोष्ण चक्रवात की उत्पत्ति प्रारंभ होना Fronto-genesis (वाताग्र जनन की अवस्था) कहलाता है। जबकि चक्रवात का अन्त/ विनाश Frontolisis (वाताग्र समापन की अवस्था) कहलाता है।
वाताग्र निर्माण के बाद या संक्रमण स्थिति बनने के बाद वायु में चक्रीय प्रवाह की प्रक्रिया प्रारंभ होती हैं। इसका मुख्य कारण ठण्डी वायु का गर्म वायु राशि क्षेत्र में प्रवेश करना है। जब ठण्डी वायुराशि, गर्म वायुराशि के क्षेत्र में प्रवेश करती है तो ग्रहीय नियमों के अनुरूप प्रवाहित नहीं हो पाती हैं क्योंकि प्रवाहित वायु का लक्ष्य कोई अक्षांशीय निम्न बायुदाब की पेटी न होकर आस-पास की गर्म वायु का केन्द्र होता है। अत: प्रविष्ट करने वाली वायु गर्म वायु की दिशा में प्रवाहित होने लगती है और ठण्डी वायु अपना ग्रहीय प्रवाह को छोड़ देती है। प्रवाह का यह विचलन अंततः चक्रीय रूप धारण कर लेती है। इसे चित्र के माध्यम से भी समझा जा सकता है।
कई मौसम वैज्ञानिकों ने शीतोष्ण चक्रवात की उत्पत्ति का अध्ययन किया है। इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य स्वीडीश मौसम वैज्ञानिक जैकोट्स और जर्केंस का है। इन्होंने चक्रवात उत्पत्ति के संबंध में ध्रुवीय वाताग्र सिद्धांत प्रस्तुत किया है। इस सिद्धांत के अनुसार शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति 6 अवस्थाओं में होती है:-
प्रथम अवस्था - प्रारंभिक अवस्था/ वाताग्र जनन की अवस्था
द्वितीय अवस्था - चक्रीय परिसंचरण की प्रारंभ की अवस्था
तृतीय अवस्था - उष्ण खण्ड निर्माण की अवस्था
चतुर्थ अवस्था - शीत वाताग्र के तीव्र अग्रसारी होने की अवस्था
पाँचवा अवस्था - संरोध निर्माण या अधिविष्ट वाताग्र की अवस्था
छठा अवस्था - समापन की अवस्था
(1) प्रारंभिक अवस्था (Fronto genesis)/ वाताग्र जनन की अवस्था
प्रारंभिक अवस्था में ध्रुवीय और पछुआ वायु का अग्र भाग मिलकर एक संक्रमण पेटी या स्थिर वाताग्र का निर्माण करती है जिसकी चौड़ाई 5-7 किमी०, ऊँचाई 1.5-2 किमी० और लम्बाई 750 किमी० या उससे अधिक होती है।
स्थिर वाताग्र के निर्माण के लिए अति अनुकूल क्षेत्र उत्तरी अटलांटिक महासागर का मध्य अक्षांशीय क्षेत्र है। सामान्यत: वाताग्र का निर्माण उपध्रुवीय निम्न वायुदाब क्षेत्र के सहारे होता है। लेकिन, स्थल और समुद्र के असमान वितरण के कारण वाताग्र सीधा न होकर लहरदार होता है या थोड़ा सा मुड़ा होता है। जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में समुद्री सतह के अधिकता के कारण लहरदार स्थिर वाताग्र का निर्माण नहीं होता।
(2) चक्रीय परिसंचरण की प्रारंभिक अवस्था
इस अवस्था में ग्रहीय वायु (ध्रुवीय वायु) अपने मार्ग से विचलित होती है जिसके परिणामस्वरूप स्थिर वाताग्र का कुछ भाग दक्षिण की ओर अग्रसारित हो जाती है। जिस स्थान पर स्थिर वाताग्र ठण्डी / ध्रुवीय वायु के कारण जुड़ जाती है। उस भाग को शीत वाताग्र और शेष भाग को उष्ण वाताग्र कहते हैं। गर्म वाताग्र के सहारे मंद ढाल बनाते हुए गर्म वायु स्वतः ठंडी वायु के ऊपर उठने की प्रवृति रखती है। जबकि शीत वाताग्र में तीव्र ढाल के सहारे शीत वायु चक्रीय प्रवाह की प्रवृति खती है।
(3) उष्ण खण्ड निर्माण की अवस्था
इस अवस्था में ठण्डी वायु और भी अधिक निम्न अक्षांश की ओर खिसकते हुए चक्रीय प्रवाह लेने की प्रवृति रखती है जिसके कारण शीत वायु गर्म वायु के वृहत क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित कर लेती है। इतना ही नहीं शीत वाताग्र के अग्रसारित हो जाने से पछुवा हवा का सम्पर्क अपने स्रोत क्षेत्र से खत्म हो जाता है जिसके कारण गर्म वायु एक खण्ड के रूप से बचा रह जाता है जिसे उष्ण खण्ड के नाम से जानते हैं।
(4) शीत वाताग्र के तीव्र अग्रसारी होने की अवस्था
इस अवस्था में शीत वाताग्र और आगे बढ़ता है। इस अवस्था में शीत वाताग्र के लगातार आगे बढ़ने के कारण पछुवा हवा का सम्पर्क अपने स्रोत्र क्षेत्र से पूर्णतः कट जाता है। इतना ही नहीं बल्कि गर्म हवा एक संकरे प्रदेश में सिकुड़कर रह जाता है तथा शीत वाताग्र को पछुआ हवा और ठण्डी ध्रुवीय हवा दोनों मिलकर दबाव लगाना प्रारंभ कर देती है जिसके कारण शीत वाताग्र तेजी से अग्रसारित होने लगता है। दूसरी ओर जिस स्थान पर स्थिर वाताग्र मुड़ा था उस स्थान पर शीत सीमाग्र और गर्म सीमाग्र के मिलने से आवर्त की स्थिति उत्पन्न होती है। इस अपर्त के चारों ओर गर्म एवं ठण्डी वायु का मिश्रित चक्रीय प्रवाह देखने को मिलता है।
(5) संरोध निर्माण या अधिविष्ट वाताग्र की अवस्था
इस अवस्था में शीत वाताग्र और उष्ण वाताग्र आपस में मिलने की प्रवृति रखती है। लेकिन मिलने की प्रक्रिया वाताग्र के केन्द्र से शुरू होती है। गर्म वाताग्र और शीत वाताग्र मिलकर संरोध वाताग्र (Occluded front) का निर्माण करती है। संरोध वाताग्र एक ऐसा वाताग्र है जिसमें उष्ण एवं शीत दोनों प्रकार की वायु पायी जाती हैं। संरोध वाताग्र दो प्रकार का होता है:-
(i) शीत संरोध वाताग्र
(ii) गर्म संरोध वाताग्र
शीत संरोध वाताग्र वह स्थिति है जिसमें गर्म वाताग्र समाप्त हो जाता है और शीत वाताग्र गर्म वाताग्र के आगे अवस्थित ठण्डी वायु के क्षेत्र में प्रविष्ट कर पाती है।
उष्ण संरोध वाताग्र वह हैं जहाँ पर वाताग्र का प्रभाव क्षेत्र वाताग्र के केन्द्र प्रभाव में एक छोटे से केन्द्र में रह जाता है।
(6) समापन की अवस्था (Frontolisis)
समापन की अवस्था को Frontolisis की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में उष्ण वाताग्र एवं शीत वाताग्र आपस में पूर्णतः मिल जाते हैं। ध्रुवीय वायु और पछुवा हवा पृथ्वी की घुर्णन गति के प्रभाव में आकर ग्रहीय मार्ग अपना लेती है और चक्रवात की समाप्ति हो जाती है।
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की मौसमी दशाएँ एवं वाताग्र के प्रकार
शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात में विभिन्न प्रकार के मौसमी दशाओं का विवेचना निर्मित होने वाले चारों वाताग्र के आधार पर करते हैं। प्रत्येक वाताग्र की अलग-2 विशेषताएँ होती हैं। मौसमी विशेषताओं के आधार पर ही वाताग्र को चार भागों में बाँटते हैं।
(1) स्थिर वाताग्र (Stationary Front)
(2) उष्ण वाताग्र (Warm Front)
(3) शीत वाताग्र (Cold Front)
(4) संरोध/अधिविष्ट वाताग्र (Occluded Front)
(1) स्थिर वाताग्र
शीतोष्ण चक्रवात उत्पन्न होने के पहले आसमान साफ होता है। ध्रुवीय और पछुआ वायु अपने-2 प्रचलित मार्ग से चलने की प्रवृति रखते हैं। ज्यों ही पछुआ वायु और ध्रुवीय वायु एक-दूसरे के विपरीत दिशाओं से आकर मिलती है तो स्थिर वाताग्र का निर्माण करती है। स्थिर वाताग्र में वायु स्थिर रहती है। वर्षा नहीं होती है। लेकिन आसमान धुंधला होने लगता है।
(2) उष्ण वाताग्र
उष्ण वाताग्र की स्थिति में भी वायु स्थिर बनी रहती है क्योंकि गर्म पछुवा वायु ठण्डी ध्रुवीय वायु के क्षेत्र में प्रविष्ट करने का प्रयास करती है। लेकिन गर्म वायु प्रविष्ट नहीं कर पाती है। फलत: गर्म वायु मंद ढाल के सहारे ठण्डी वायु के ऊपर धीरे-2 चढ़ने की प्रवृत्ति रखती है जिससे बहुस्तरीय बादलों का निर्माण होता है। जैसे:- उपर से नीचे आने पर क्रमशः Cirrus, Cirro stratus, Alto stratus और Cumulus नामक बादल का निर्माण करती है। इन प्रकार के बादलों से धीरे-धीरे लम्बी अवधि तक वर्षण का कार्य होती है। वर्षा का प्रभाव क्षेत्र भी विस्तृत होता है।
(3) शीत वाताग्र (Cold front)
शीत वाताग्र की स्थिति में ठण्डी वायुराशि गर्म वायुराशि के क्षेत्र में प्रविष्ट करती है जिसके कारण वाताग्र तीव्र ढाल का निर्माण करती है। तीव्र ढाल के सहारे गर्म वायु राशि उपर उठकर संतृप्त हो जाती है और ऊपर से नीचे क्रमशः तीन प्रकार के बादलों का निर्माण करती है। जैसे-
(i) स्तरी बादल (Cirro Stratus)
(ii) कपासी वर्षी बादल (Cumulo Nimbus)
(iii) वर्षा स्तरी बादल (Nimbo Stratus)
शीत वाताग्र वाले क्षेत्र में अति अल्प समय में भारी वर्षा रिकॉर्ड किया जाता है। शीत वाताग्र का प्रभाव क्षेत्र काफी छोटे क्षेत्रों में होता है। जबकि उस स्थान से शीत वाताग्र गुजर जाता है तो अचानक वर्षा रुक जाती है। शीतलहरी चलने लगती है। तापमान भारी गिरावट आती है। वायुदाब बढ़ जाती है और मौसम कष्टकर हो जाता है।
(4) संरोध वाताग्र (Occluded Front)
संरोध वाताग्र में कई प्रकार के बादलों का निर्माण होता है। लेकिन इसमें वर्षा तीव्र होती है। संरोध के कारण शीतोष्ण चक्रवात में अंतिम रूप से वर्षा होती है। जब उष्ण वाताग्र और गीत वाताग्र पूर्णतः आपस में मिलते हैं तो उष्ण खण्ड भी समाप्त हो जाता है। ध्रुवीय वायु और पछुआ वायु पुन: ग्रहीय मार्ग को अपना लेते हैं। आकाश साफ हो जाता है। ध्रुवीय वायु और पछुआ वायु अपने-2 क्षेत्र में रहकर उपध्रुवीय भागों में कोरियालिस प्रभाव के कारण ऊपर उठने लगती है। जिससे मौसम पूर्णतः सामान्य हो जाता है। पुनः जब ध्रुवीय वायु पछुवा वायु के क्षेत्र में प्रविष्ट होने का प्रयास करती है तो पुन: नई चक्रवात का निर्माण प्रारंभ होता है।
शीतोष्ण चक्रवात का वितरण
शीतोष्ण चक्रवात का प्रभाव क्षेत्र सामन्यत: 45º-65° अक्षांश के बीच दोनों गोलार्द्धों में होता है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात का प्रभाव क्षेत्र हजारों किमी० तक हो सकता है। :-
(1) उत्तरी अटलांटिक महासागर और पश्चिमी यूरोप शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात के सबसे अनुकूल क्षेत्र हैं। प० यूरोप में शीतोष्ण चक्रवात के कारण ही सालों भर वर्षा होती है।
(2) शीतोष्ण चक्रवात का दूसरा सबसे प्रमुख क्षेत्र उत्तरी प्रशान्त महासागर में स्थित है। इस क्षेत्र में चक्रवात का प्रभाव क्षेत्र बेरिंग सागर, ओखोटस्क सागर से लेकर कनाडा के प० तट तक होता है।
(3) शीतोष्ण चक्रवात का तीसरा प्रमुख क्षेत्र न्यू फाउंडलैण्ड (कनाडा) और उसके आसपास का क्षेत्र होता है।
(4) भूमध्य सागर के ऊपर भी शीत ऋतु में शीतोष्ण चक्रवात का निर्माण होता है। इसके कारण तुर्की, ईरान, इराक, अफगानिस्तान और उ०-प० भारत में चक्रवातीय वर्षा होती है।
दक्षिणी गोलार्द्ध में सागरीय स्थिति अधिक होने के कारण शीतोष्ण चक्रवात का निर्माण लगभग नगण्य होता है। द० गोलार्द्ध में मात्र चिली के दक्षिणी भाग में छोटी शीतोष्ण चक्रवात उत्पन्न होता है जिससे वर्षण का कार्य होता है।
No comments