4. COMPLETE EDUCATIONAL PSYCHOLOGY / सम्पूर्ण शिक्षा मनोविज्ञान / CAPSULE - 4
4. COMPLETE EDUCATIONAL PSYCHOLOGY / सम्पूर्ण शिक्षा मनोविज्ञान
CAPSULE - 4
एक नजर में इन्हें जरुर देखें
अधिगम के सिद्धान्त
"पावलव ने कुत्ता छोड़ा, थार्नडायिक की बिल्ली पर।
स्किनर का चूहा मर गया, कोहलर के चिम्पैंजी पर।"
पावलव का अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त
प्रतिपादक - IP पावलव/ शरीर शास्त्री
निवासी - रूस
सिद्धान्त - 1904
नोबेल पुरुस्कार - 1904
प्रयोग - कुत्ते पर
प्रमुख संकेत
U.C.S. - UNCONDITIONAL SITIMULUS (स्वभाविक उददीपक अर्थात भोजन)
C.S. - CONDITIONAL SITIMULUS (अस्वभाविक उददीपक अर्थात घण्टी की आवाज)
U.C.R. - UNCONDITIONAL RESPONSE (स्वभाविक अनुक्रिया अर्थात लार)
C.R. - CONDITIONAL RESPOSE (अस्वभाविक अनुकूलित अनुक्रिया र्अथात अनुबंधित)
पावलव का अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त :- इस सिद्धान्त का प्रतिपादन 1904 में पावलन ने एक कुत्ते पर किये प्रयोग से किया। प्रारम्भ में पावलव ने पाया कि भूखे कुत्ते को भोजन दिखाने से उसके मुँह में लार आ जाना स्वभाविक क्रिया है। बाद में पावलव ने कई दिनो तक कुत्ते को घण्टी बजाकर खाना दिया। (घण्टी +खाना) प्रक्रिया कई दिनो तक दोहराने से पाया कि खाना एवं घण्टी के मध्य सम्बन्ध उत्पन्न हो जाता है एवं लार टपकना स्वभाविक क्रिया होती है।
पावलव ने इसके बाद घण्टी बजाई परन्तु खाना साथ में नहीं दिया तथा देखा कि कुत्ता स्वभाविक क्रिया (लार) करता है।
पावलव के इस प्रयोग हम निम्न 3 चरणों में समझ सकते हैं-
प्रथम चरण = अनुकूलन से पूर्व ➡ स्वभाविक उददीपक (भोजन) U.C.S अनुबंधित उद्दीपक ➡ स्वभाविक अनुक्रिया (लार) अनानुबंधित अनुक्रिया U.C.R.
द्वितीय चरण = अनुकूलन के दौरान ➡ अस्वभाविक उद्दीपक (घण्टी ) C.R. ➡ स्वभाविक उद्दीपक (भोजन) U.C.S. अनानुबंधित उददीपक ➡ स्वभाविक अनुक्रिया (लार) अनानुबंधित अनुक्रिया U.C.R.
तृतीय चरण = अनुकूलन के बाद ➡ अस्वभाविक उद्दीपक (घण्टी) C.S. अनुबंधित उद्दीपक ➡ स्वभाविक अनुक्रिया (लार) अनुबंधित व C.R. अनुकूलित अनुक्रिया
Note : अनुकूलित अनुक्रिया :- अस्वभाविक उद्दीपक के प्रति स्वभाविक अनुक्रिया होना।
पावलव अनुक्रिया सिद्धान्त के उपनाम
➡ शरीर शास्त्री का सिद्धान्त
➡ शास्त्रीय अनुबंधन का सिद्धान्त
➡ क्लासिकल सिद्धान्त / अनुबंधन
➡ अनुबंधित अनुक्रिया का सिद्धान्त
➡ सम्बन्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त
➡ अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त
➡ अस्वभाविक अनुक्रिया का सिद्धान्त
पावलव अनुक्रिया सिद्धान्त का शैक्षिक महत्व -
➡ भय निवारण में सहायक
➡ सामाजीकरण में सहायक
➡ अनुशासन विकसित करने में सहायक
➡ गणित शिक्षण में सहायक
➡ अभिवृत्ति विकास में सहायक
➡ स्वभाव व आदत निर्माण में सहायक
थार्नडाइक के सीखने के सिद्धान्त
प्रतिपादक - थार्नडाइक
वर्ष - 1913 ई०
निवासी - U.S.A. (अमेरिका)
प्रयोग - बिल्ली पर (भूखी)
उद्दीपक - मांस/मछली का टुकड़ा
BOOK - Education Psychology
➡ अपने प्रयोग मे थार्नडाइक में एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बन्द कर दिया और पिंजड़े के बाहर भोज्य सामग्री रख दी। बिल्ली के लिए भोजन उद्दीपक था, उद्दीपक के कारण उसमे प्रतिक्रिया आरम्भ हुई। बिल्ली ने बाहर निकलकर भोजन प्राप्त करने के लिए कई प्रयास किये, और पिंजड़े के अन्दर चारों ओर घूमकर कई पंजे मारे। प्रयत्न करते करते उसने अचानक उस तार को खींच लिया जिससे पिंजड़े का दरवाजा खुलता था। दोबारा फिर बिल्ली को बन्द करने पर उसे बाहर आने के लिए पहले से कम समय में सफलता मिल गयी। इसी प्रकार तीसरे व चौथे प्रयास में और भी कम प्रयत्नों में सफलता मिल गई। अंततः एक परिस्थिति आई जब वह एक बार में ही दरवाजा खोलकर बाहर आना सीख जाती है। इसलिए थार्नडाइक के इस सिद्धान्त को 'प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त' भी कहा जाता है।
NOTE-
एक विशेष स्थिति / उद्दीपक (Stimulus) होता है, जो उसे एक प्रकार की प्रतिक्रिया / अनुक्रिया (Response) करनें के लिए प्रेरित करती हैं।
थार्नडाइक सिद्धान्त के उपनाम
➡ प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त,
➡ प्रयत्न एवं भूल का सिद्धान्त,
➡ आवृत्ति का सिद्धान्त,
➡ उद्दीपक, अनुक्रिया का सिद्धान्त,
➡ SR BOND का सिद्धान्त,
➡ सम्बन्ध वाद का सिद्धान्त,
➡ अधिगम का बन्ध सिद्धान्त।
👉 इस प्रकार एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया / अनुक्रिया से सम्बन्ध स्थापित होना SR-BOND कहलाता है।
👉 बिल्ली के समान ही बालक का चलना, चम्मच से खाना, जूते पहनना।
👉 वयस्क लोग भी ड्राईविंग, टाई की गाँठ, कोई खेल इसी सिद्धान्त के अनुसार सीखते है।
थार्नडाइक सिद्धान्त का शैक्षिक महत्व -
➡ बड़े व मन्दबुद्धि बालकों के लिए उपयोगी।
➡ धैर्य व परिश्रम के गुणों का विकास।
➡ सफलता के प्रति आशा।
➡ कार्य की स्पष्ट धारणा।
➡ शिक्षा के प्रति रुचि।
➡ गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र आदि विषयों के लिए उपयोगी।
➡ अनुभवों से लाभ उठाने की क्षमता का विकास।
स्किनर का क्रिया प्रसूत अधिगम सिद्धान्त
निवासी - U.S.A.
प्रतिपादक - बी. एफ. स्किनर
वर्ष - 1938
प्रयोग - चूहा (1938 व कबूतर 1943)
⇒ यह सिद्धान्त थार्नडाइक के प्रभाव के नियम पर आधारित है।
👉 स्किनर ने अपने आधार पर बताया कि व्यक्ति, प्राणी सीखते समय दो प्रकार के व्यवहार करता है।
(A) एक प्रकार के व्यवहार में उद्दीपक की जानकारी होती है, इसे अनुक्रियात्मक व्यवहार और ज्ञात उद्दीपक के प्रति होने वाली अनुक्रिया प्रकाशित अनुक्रिया कहलाती है।
(B) दूसरे प्रकार के व्यवहार में उद्दीपक की जानकारी नहीं होती है। इसे क्रिया प्रसूत व्यवहार और अज्ञात उद्दीपक के प्रति होने वाली अनुक्रिया निर्गमित या उत्सर्जित क्रिया कहते हैं।
स्किनर का परीक्षण :-
👉 स्किनर ने अधिगम से सम्बन्धित अपने सिद्धान्त के प्रयोग के लिए एक विशेष बॉक्स बनाया जिसे स्किनर बॉक्स कहा जाता है।
👉 स्किनर ने चूहे को अपने प्रयोग का विषय बनाया। इस बॉक्स में एक लीवर था, जिसके दबते ही खट की आवाज आती थी, इस लीवर का सम्बन्ध एक प्लेट से था, जिसमें खाने का टुकड़ा आ जाता था।
👉 वह खाना उसकी क्रिया के लिए पुनर्बलन का कार्य करता था। इस प्रयोग में चूहा भूखा होने पर बॉक्स के लीवर को दबाता, और उसे भोजन मिल जाता था।
👉 इसी आधार पर स्किनर ने कहा कि यदि किसी क्रिया के बाद 'लिवर' कोई बल प्रदान करने वाला उद्दीपक 'भोजन' प्राप्त हो जाता है तो उस क्रिया की शक्ति में वृद्धि हो जाती है।
स्किनर का मत :--
(i) यदि इस प्रकार अनुक्रियाओं को पुनर्बलित कर दिया। जाये तो वे बलवति हो जाती है, और व्यवहार में स्थायी परिवर्तन लाती है।
(ii) अनुक्रिया के लिए सदैव उद्दीपक का होना आवश्यक नहीं है। कभी-कभी उद्दीपक की अनुपस्थिति में अनुक्रिया होती है। इसलिए स्किनर के बारे में कहा गया।
इन्होंने परम्परागत थ्योरी (S-R) को (R-S) थ्योरी में परिवर्तित कर दिया है।
स्किनर सिद्धान्त का शैक्षिक महत्व :-
➡ अवांछित व्यवहारों को नकारात्मक पुनर्बलन प्रदान करके रोका जा सकता है।
➡ विद्यार्थी को तत्काल पुनर्बलन देना चाहिए।
➡ शिक्षार्थी का परिणाम शीघ्रातिशीघ्र घोषित करना चाहिए।
➡ अभिक्रमित अनुदेशन, कम्प्यूटर सहायक, शिक्षण मशीन आदि में पुनर्बलन देने के लिए इसी सिद्धान्त का प्रयोग किया जाता है।
➡ अध्यापक छात्रों के वांछित व्यवहार को प्रशंसा पुरुस्कार प्रोत्साहन व अपनी सहमति से पुनर्बलित कर दे तो 'विद्यार्थी ऐसे व्यवहार को बार-बार करना चाहेगा।
स्किनर सिद्धान्त के उपनाम :-
➡ R-S सिद्धान्त
➡ सक्रिय अनुबंध का सिद्धान्त
➡ व्यवहारिक सिद्धान्त
➡ नेमेन्तिक वाद का सिद्धान्त
➡ कार्यात्मक प्रतिबद्धता का सिद्धान्त
अभिक्रमित अनुदेशन
➡ एक रेखिय अभिक्रमित अनुदेशन :-
प्रतिपादक - BF स्किनर
वर्ष - 1952
शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन :-
प्रतिपादक - नार्मन ए क्राउड
वर्ष - 1960
मैथेमेटिक्स या अवरोधी अभिक्रमित अनुदेशन :-
प्रतिपादक - थामस एफ गिलबर्ट
वर्ष - 1962
नोट : भारत में पहली बार प्रयोग इलाहबाद में सन् 1969 में किया गया।
कोहलर का अर्न्तदृष्टि या सूझ का सिद्धान्त :-
प्रतिपादक - कोहलर, मेलस वर्दीमर
प्रयोग कर्ता - कोहलर (1912)
प्रयोग - चिम्पैजी/वनमानुस/सुल्तान
वर्ष - 1912
प्रसिद्ध 1920
सहयोगी - कोफ्का
गैस्टालवाद - जर्मन भाषा का शब्द (सम्पूर्ण से अंश की ओर)
➡ गैस्टालवादियों के अनुसार सीखना प्रयास व त्रुटि के द्वारा न होकर सूझ के द्वारा होता है।
➡ सूझ से तात्पर्य अचानक उत्पन्न होने वाले एक ऐसे विचार से है, जो किसी समस्या का समाधान कर दें।
➡ सूझ द्वारा सीखने के अन्तर्गत प्राणी परिस्थितियों का भली प्रकार से अवलोकन करता है, तत्पश्चात अपनी प्रक्रिया/प्रतिक्रिया देता है।
➡ सूझ द्वारा सीखने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है, और इस प्रकार के अधिगम में मस्तिष्क का सर्वाधिक प्रयोग होता है।
कोहर सिद्धान्त के उपनाम :-
➡ गेस्टाल का सिद्धान्त
➡ समग्रकार सिद्धान्त
➡ कोहलर का सिद्धान्त
➡ अन्तर्दृष्टि/सूझ का सिद्धान्त
जीन पियाजे का संज्ञानवादी सिद्धान्त
निवासी - स्विटजरलैण्ड
सहयोगी - बारबेल इन्हेलडर
➡ जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक पक्ष पर बल देते हुए संज्ञानवादी विकास का प्रतिपादन किया इसलिए जीन पियाजे को विकासात्मक मनोविज्ञान का जनक माना जाता है।
➡ विकास प्रारम्भ होता है गर्भावस्था से जबकि संज्ञान विकास शैशवावस्था से प्रारम्भ होकर जीवन पर्यन्त चलता है।
➡ जीन पियाजे में मानव संज्ञान विकास चार अवस्थाओं में समझाया है-
(i) संवेदी पेशिय अवस्था (0-2 वर्ष)
(ii) पूर्व सक्रियात्मक अवस्था (2-7 वर्ष)
(iii) मूर्त सक्रियात्मक अवस्था (7- 11 वर्ष)
(iv) औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था (12-15 वर्ष)
(i) संवेदी पेशिय अवस्था (0-2 वर्ष) -
➡ इसे इन्द्रिय जनित अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में शिशु अपनी संवेदनाओं व शारीरिक क्रियाओं के द्वारा सीखता है।
➡ वह वस्तुओं को देखकर, सुनकर, स्पर्शकर, गन्ध तथा स्वाद के माध्यम से ज्ञान ग्रहण करता है।
➡ इस अवस्था में शिशु अपने हाथ-पैरो को चलाना व शब्दों को बोलना सीख जाता है।
(ii) पूर्व सक्रियात्मक अवस्था (2-7 वर्ष) -
➡ इस अवस्था में शिशु दूसरों के सम्पर्क व खिलौनो तथा अनुकरण के माध्यम से सीखता है।
➡ अक्षर लिखना, गिनती गिनना, रंग की पहिचान करना, हल्का भारी बताना इत्यादि सीख जाता है।
➡ माता-पिता की आज्ञा मानना, नाम बताना, छोटे-छोटे कार्यों में भाग लेना आदि सीख जाता है।
➡ इस अवस्था में बालक तार्किक चिन्तन करने योग्य नहीं होता इसलिए इसे अतार्किक चिन्तन की अवस्था कहते हैं।
(iii) मूर्त सक्रियात्मक अवस्था (7- 11 वर्ष) -
➡ इसे वैचारिक अवस्था चिन्तन की तैयारी का काल भी कहलाता है।
➡ इस अवस्था में चिन्तन की शुरूआत हो जाती है, लेकिन उसका चिन्तन केवल मूर्त (प्रत्यक्ष) वस्तुओं तक ही सीमित रहता है। इसलिए इसे मूर्त चिन्तन की अवस्था भी कहते है।
➡ इस अवस्था में बालक दो वस्तुओं के मध्य अन्तर करना, तुलना करना, समानता बताना, सही-गलत में भेद करना आदि सीख जाता है।
➡ इस अवस्था मे बालक दिन, तारीख, वर्ष, महीन आदि बताने के योग्य हो जाता है।
(iv) औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था (12-15 वर्ष)
➡ इस अवस्था में किशोर मूर्त के साथ-साथ अमूर्त चिन्तन करने के योग्य भी हो जाता है, इसलिए इसे तार्किक अवस्था भी कहते हैं।
➡ इस अवस्था में चिन्तन करना, कल्पना करना, निरीक्षण करना समस्या, समाधान करना आदि मानसिक योग्यताओं का विकास हो जाता है।
जीन पियाजे का शिक्षा में योगदान -
➡ बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल दिया।
➡ शिक्षक के पद को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि शिक्षक को बालक की समस्या का निदान करना चाहिए।
➡ शिक्षा हेतु बालकों को उचित वातावरण प्रदान करना चाहिए।
➡ जीन पियाजे ने बुद्धि को जीव विज्ञान की स्कीमा की भाँति बताया है।
नोट : स्कीमा - मानसिक संरचना को व्यवहार गत समानान्तर प्रक्रिया जीव विज्ञान में स्कीमा कहलाती है, अर्थात किसी उद्दीपक के प्रति विश्वसनिय अनुक्रिया को स्लीमा कहते है।
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