17. Theories related to the origin of the coral reef (प्रवाल भित्ति के उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत)
स्थायी स्थान का सिद्धांत (Non Subsideence Theory)
डार्विन के द्वारा प्रतिपादित अवतलन के सिद्धांत का खंडन करते हुए 1880 ई० में जॉनमर्रे ने प्रवाल भित्तियों के उत्पत्ति की व्याख्या करने हेतु स्थायी स्थल का सिद्धांत प्रस्तुत किया। मर्रे के अनुसार "प्रवाल भित्ति वैसे स्थानों पर मिलते हैं जहाँ पर अवतलन का कोई प्रमाण नहीं है। वे कहते हैं कि प्रवाली भित्ति समुद्र में वहीं पर विकसित होते है जहाँ पर स्थायी रूप से छिछला समुद्र या चबूतरा या डूबा हुआ द्वीप मिलते है। उनपर ही ये प्रवाली जीव विकसित होना प्रारंभ करते हैं ताकि समुद्री जल में लटके खाद्य पदार्थों का ग्रहण कर सके। ज्यों-ज्यों प्रवाली जीवों की संख्या बढती जाती है, त्यों-त्यों प्रवाल भिति की मोटाई भी बढ़ती जाती है और अंततः समुद्रतल से ऊपर आकर वलयाकार प्रवाल भित्त्ति का निर्माण करते हैं।" प्रवाल प्रारंभ में लगभग तट से सटे सिकसित होने का प्रयास करते है लेकिन मृत प्रवाल के चुना पत्थर घुलने से लैगून की गहराई कम होती है तथा ज्यों-ज्यों प्रवाल की मोटाई बढ़ती है, त्यों -त्यों लैगून की गहराई भी घटती जाती है।
सिद्धांत के पक्ष प्रमाण
(1) मर्रे के अनुसार प्रवाल भित्ति की अधिकतम मोटाई 180 फीट तक होती है क्योंकि इसी गहराई तक अधिकतर चबूतरे समुद्र में डूबे हुए मिलते है। हिन्द और प्रशान्त महासागर में अनेक चतूबरों का प्रमाण मिलता है।
(2) मर्रे के सिद्धांत के पक्ष में लीकाण्टे, स्लूटर और सैम्पर जैसे भूगोलवेताओं ने भी इस सिद्धांत का समर्थन करते हुए कई प्रमाण इक्कठे किये हैं -
इन विद्वानों के अनुसार प्रवाली जीवों के शरीर से प्राप्त चुनापत्थर के घुलने से आरंभ में छिछले लैगून का विकास होता है लेकिन कालांतर में प्रवाल भित्ति की मोटाई बढ़ने के करण लैगून गहरा होता जाता है।
आलोचना
1. स्थायी स्थल सिद्धांत की सबसे बड़ी आलोचना लैगून की गहराई को लेकर है क्योंकि प्रवाल भित्ति की मोटाई बढ़ने से लैगून की की गहराई बढ़ती है बढ़ती है न कि घटती।
2. मर्रे के अनुसार अधिकतर समुद्री चबूतरे 180 फीट गहराई पर मिलते है। परन्तु ऐसा सर्वत्र होना असंभव है। कुछ विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया है कि अगर कोई उसकी चबूतरा कम गहराई वाला मिलता है तो क्या उस पर प्रवाल का विकास नहीं हो सकेगा।
3. मर्रे के अनुसार प्रवालों के शरीर से प्राप्त चुनापत्थर जल में घुलननशील होते हैं। अगर इस तथ्य को मान लिया जाय तो सभी प्रवाल भिति जल में घुलकर विलुप्त हो जायेंगें। लेकिन ऐसा नही हो रहा है।
निष्कर्ष : यह कहा जाता है कि यह एक ऐसा सिद्धांत/परिकल्पना है जो वैज्ञानिक एवं तार्किक विश्लेषण से काफी दूर है।
3. हिमानी नियंत्रण का सिद्धांत
हिमानी नियंत्रण सिद्धांत को अमेरिकी भूगोलवेता रेगिनॉल्ड डेली ने 1915 ई० में प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत को उन्होंने हवाई द्वीप के प्रवाल भित्तियों के अध्ययन करने के बाद प्रस्तुत किया था। यह सिद्धांत स्थिर स्थल सिद्धांत का विकलित स्वरूप है। हिमानी नियंत्रण सिद्धांत के अनुसार विश्व के सभी प्रवाल भित्तियों का निर्माण प्लिस्टोसीन कल्प में हुए हिमानीयुग के दौरान और उसके बाद हुआ है।
हिमानी नियंत्रण सिद्धांत के अनुसार प्लिस्टोसिन कल्प में जब हिमयुग आया तो समुद्र का जल स्तर 76 मी० तक नीचे चला गया और सभी समुद्री प्रवाल समुद्री तल के ऊपर आ गये तथा अधिक शीत वातावरण के कारण प्रवाल जीवित न रह सके। लेकिन कुछ प्रवाल जीवित रहे। समुद्र के जलस्तर नीचे गिरने के कारण तरंगों के द्वारा जगह-जगह पर किये गए अपरदन से कई समुद्री चबूतरों का विकास हुआ। जब हिमयुग समाप्त होने लगा तो समुद्र का जल स्तर भी बढ़ने लगा तथा समुद्र मे जो प्रवाली जीव बच गये थे वे नये चबूतरों पर आकर भोजन ग्रहण करने हेतु नया उपनिवेश स्थापित करने लगे। उसके बाद ज्यों-ज्यों समुद्र का तल बढ़ा त्यों-त्यों प्रवाल की भी मोटाई बढ़ने लगी।
हिमानी नियंत्रण सिद्धांत के अनुसार प्रारंभ में लैगून की गहराई कम थी। लेकिन बाद में समुद्र में जल स्तर बढ़ने के करण लैगून की गहराई में बढोत्तरी हुई।
इस तरह स्पष्ट होता है कि डेली महोदय ने प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति के संबंध में एक वैज्ञानिक एवं तार्किक सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि -
1. प्रवाल भित्तियों के विकास की क्रिया को जलवायु परिवर्तन से जोड़ा।
2. इस सिद्धांत से प्रवाल भित्तियों की मोटाई बढ़ने के साथ-2 लैगून की गहराई भी बढ़ती है। इसका भी व्याख्या होता है।
प्रमाण
- प्रवाल भितियों में कई जगह जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।
- डेली ने अपने सिद्धांत में बताया कि प्रवाल भित्तियों के ऊपरी तल चपटे होते हैं, जो कि अध्ययन से ऐसा प्रमाणित हो चुका है।
- लैगून की गहराई की उन्होंने प्रवाल भित्तियों के बढ़ते मोटाई से नहीं जोड़ा है बल्कि समुद्र के बढ़ते हुए जलस्तर से जोड़ा है जो एक सटीक तर्क है।
आलोचना
- डेली के अनुसार समुद्र तल 76 मी० तक नीचे चला गया था। लेकिन अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि समुद्र के जलस्तर में इससे भी अधिक गिरावट आई थी।
- समुद्र के जलस्तर गिरने के बाद समुद्र के तरंगों के द्वारा अपदन से नये चबूतरों का विकास हुआ होगा। इन नये चबूतरों पर कीचड़ भी पाये गये होंगें तो ऐसे में कीचड़युक्त चबूतरे पर पुन, प्रवाल कैसे विकसित हो सकते हैं।
- डेविस महोदय ने इसका आलोचना करते हुए कहा कि पूरे विश्व का समुद्री जलस्तर एक समान ऊपर उठा है। ऐसे में बली लैगून की गहराई एक समान होना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है।
- डेली के अनुसार हिमयुग में 76 मी० की गहराई पर चबूतरों का विकास हुआ था। इसका तात्पर्य है कि प्रवाल भित्तियों की मोटाई 76 मी० तक ही होना चाहिए। लेकिन विकनी द्वीप जैसे अनेक द्वीप है जो 180 मी० से अधिक गहरे है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि कोई भी एक सिद्धांत प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति की व्याख्या करने में सक्षम नहीं है। अत: अलग-अलग स्थानों पर विकसित प्रवास भित्तियों की व्याख्या अलग-अलग सिद्धांतों से की जा सकती है। अगर ऐसा संभव नहीं है तो सभी सिद्धांतों को मिलाकर एक एकीकृत सिद्धांत प्रस्तुत करने की आवश्यकता है।
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