प्रवाल भित्ति/Coral Reaf/प्रवाल भित्ति के उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत

 प्रवाल भित्ति
(Coral Reaf)

                                        समुद्र में कई प्रकार के जीव-जंतु पाए जाते हैं। उनमें से एक जीव का नाम पॉलिप है जिसके शरीर से चूना पत्थर चट्टानों का स्राव होता है। इसे मूँगा भी कहते हैं। यह झूंडों में अधिवासित होने की प्रवृत्ति रखता है। ये समुद्र के नितल पर भोजन की तलाश में इधर-उधर घूमते रहते हैं। ये भोजन की तलाश में छिछले समुद्री भाग पर जमा होने लगते हैं और भोजन ग्रहण करने के लिए एक-दूसरे पर चढ़ने लगते हैं जिसके कारण सबसे नीचे स्थित पॉलिप दबाव क्रिया के कारण मरने लगते हैं                             पॉलिप के मृत शरीर और उनके शरीर से निकले चूनापत्थर का निक्षेपण धीरे-धीरे छिछले समुद्री भूपटल पर जमा होने लगता है। घोंघा या मोलस्का, ब्रायोजोआ, कोरामेनिफेरा एवं अन्य हाइड्रोजोआ जैसे जीवों से प्राप्त पदार्थ चूना पत्थर के चट्टानों को जोड़ देते हैं जिसके कारण छिछले समुद्री भागों में गुंबदाकार या एक दीवाल के समान निक्षेपित स्थलाकृति बनती है, जिसे प्रवाल भित्ति कहते हैं।

प्रवाल भित्ति की विशेषताएँ

(1) प्रवाल भित्ति एक प्रकार के समुद्री जीवों के मरने एवं उनके निक्षेपण से निर्मित स्थलाकृति है।

(2) प्रवाल भित्ति का विकास विषुवतीय को छोड़कर 35°N-35°S अक्षांश के बीच होता है।

(3) उपयुक्त अक्षांशों में ही प्रवाल भित्ति का विकास छिछले सागरीय क्षेत्र में तथा तटीय भाग से थोड़ा दूर होती है।

(4) प्रवाल भित्ति प्राय: महाद्वीपों के पूर्वी तट पर विकसित होते हैं।

(5) प्रवाल भित्ति का आकार एक दीवार के समान या गुम्काबदार होता है।

(6) प्रवाल भित्ति और तट के बीच छिछले सागर मिलते हैं, जिसे लैगून कहते हैं।

भौगोलिक कारक/उपयुक्त परिस्थितिययाँ

(1) प्रवाल भित्ति के विकास हेतु 20-21℃ के बीच तापमान होना चाहिए। इसके लिए आदर्श वार्षिक तापमान 20 माना जाता है।

(2) प्रवाल भित्ति के विकास हेतु आदर्श गहराई 45-55 मीटर मानी जाती है क्योंकि इसी गहराई तक सूर्य की किरणें पहुंचती है विभिन्न प्रकार के प्लैंकटन का विकास होता है।

(3) प्रवाल वहीं पर विकसित होते हैं जहां पर चूर मात्रा में प्लैंकटन मिलते हैं। प्रवाली जीव न तो अत्याधिक लवणता वाले और न ही अत्यधिक स्वच्छ जल में विकसित होते हैं इनके विकास हेतु 27-30 o/oo लवणता उपयुक्त मानी जाती है।

(4) प्रवाली जीवों के लिए कीचड़युक्त जल भी हानिकारक होता है यही कारण है कि ये महाद्वीपों के किनारे से सटे विकसित नहीं होते बल्कि कुछ दूरी पर विकसित होते हैं।

(5) प्रवाल भित्ति का विकास तीव्र महाद्वीपीय ढालों पर नहीं होता क्योंकि उन ढालों पर न तो प्लैंकटन  स्थिर रह पाते हैं और न ही स्वयं पॉलिप झुंडो में अधिवास कर सकते हैं।

(6) प्रवाली जीवों का विकास प्राय: महाद्वीपों के पूर्वी तट पर होता है क्योंकि महाद्वीपों के पूर्वी तट पर विषुवतीय गर्म जलधारा का प्रभाव होता है जबकि पश्चिमी तट पर ठंडी समुद्री जलधारा के कारण ये विकसित नहीं हो पाते हैं।

(7) प्रवाल भित्तियों के विकास को प्रचलित हवा भी प्रभावित करती है। जैसे उत्तरी गोलार्ध में महाद्वीपों के पूर्वी तट पर वाणिज्य हवा समुद्र से स्थल की ओर चढ़ती है जबकि पश्चिमी तट पर स्थल से समुद्र की ओर उतरती है। इसी तरह की घटना दक्षिणी गोलार्ध में भी होती है। पूर्वी तटीय भागों में वाणिज्य हवा के द्वारा प्लैंकटन को दूर-दूर से लाकर तटीय भागों में जमा कर दिया जाता है जबकि पश्चिमी तट में वाणिज्यिक हवा तट से दूर ले जाने की प्रवृत्ति रखते हैं। 

           उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रवाल भित्ति विभिन्न प्रकार के भौगोलिक परिस्थितियों की देन है।

प्रवाल भित्ति के प्रकार

प्रवाल भित्ति कई प्रकार के होते हैं। जैसे :-

(1) तटीय प्रवाल भित्ति 

(2) अवरोधक प्रवाल भित्ति 

(3) वलयाकार प्रवाल भित्ति

तटीय प्रवाल भित्ति

                         तटीय प्रवाल भित्ति प्रायः तट के समानांतर विकसित होता है। इस प्रकार के प्रवाल भित्ति की मोटाई 50-55 मीटर तक होता है। लैगून अत्यंत छिछला होता है। लैगून की गहराई 1.5 - 3 मीटर तक होती है। ऐसे लैगून को Boot Channel कहते हैं। लैगून के सतह पर मृत पॉलिप इधर-उधर बिखरे पाए जाते हैं। तटीय प्रवाल भित्ति में तट के किनारे वाले प्रवाल भित्ति का ढाल मंद होता है जबकि समुद्र की ओर वाला ढाल तीव्र होता है। अंडमान निकोबार और अमेरिका के फ्लोरिडा तट पर तटीय प्रवाल भित्ति पाए जाते हैं।

अवरोधक प्रवाल भित्ति

            अवरोधक प्रवाल का विकास के तट समानांतर होता है लेकिन तटीय प्रवालों की तुलना में यह निम्न संदर्भों में भिन्न होता है। जैसे -

(i) इनमें प्रवाल भित्ति की मोटाई 55 मीटर से अधिक होता है। आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर मिलने वाला ग्रेट बैरियर रीफ की मोटाई 180 मीटर तक है। 

(ii) इसमें लैगून की गहराई भी अधिक होती है और अवरोधक प्रवाल भित्ति के द्वारा विकसित लैगून की गहराई 60 मीटर तक होती है। 

(iii) अवरोधक प्रवाल भित्ति के दोनों ढाल तटीय प्रवाल भित्ति की तुलना में अधिक होता है। सामान्यत: स्थल भाग की ओर वाला ढाल 15°-20° और समुद्र की ओर वाला ढाल 45° तक होता है। ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड के पूर्वी तट पर विश्व की सबसे लंबी अवरोधक प्रवाल भित्ति पाई जाती है जिसकी लंबाई 1920 किलोमीटर और मोटाई 180 मीटर, न्यूनतम चौड़ाई 16 किलोमीटर, अधिकतम चौड़ाई 144 किलोमीटर है। यह तट से लगभग 32 किलोमीटर दूर स्थित है। अवरोधक प्रवाल भित्ति का प्रमाण न्यूकैलेडोनियन द्वीप समूह के पास भी मिलता है

वलयाकार प्रवाल भित्ति/एटॉल

एटॉल प्रवाल भित्ति का विकास ज्वालामुखी द्वीपों के चारों ओर होता है। जब प्रवाल भित्ति धीरे-धीरे विकसित होकर समुद्र तल से ऊपर आ जाते हैं तो प्रवाल द्वीप का निर्माण करते हैं। वलयाकार/एटॉल प्रवाल भित्ति में मोटाई, लैगून की गहराई और ढाल तटीय एवं और अवरोधक प्रवाल भित्ति की तुलना में अधिक होता है। वलयाकार प्रवाल भित्ति भी कई प्रकार के होते हैं। जैसे -

(i) वैसा वलयाकार प्रवाल भित्ति जिसके मध्य में लैगून दिखता हो जैसे : लक्ष्यद्वीप

(ii) वैसा वलयाकार प्रवाल भित्ति जिसके मध्य में लैगून एवं छोटे-छोटे द्वीप दोनों मिलते हो। प्रशांत महासागर के अधिकतर प्रवाल भित्ति इसी प्रकार के हैं। 

(iii) वैसा प्रवाल भित्ति  जिसके मध्य में लैगून का अभाव हो जैसे : हवाई द्वीप

प्रवाल भित्ति के उत्पत्ति से संबंधित सिद्धांत

          प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति के संबंध में तीन प्रमुख सिद्धांत प्रस्तुत किए गए हैं -

(1) अवतलन का सिद्धांत 

(2) स्थायी स्थल का सिद्धांत 

(3) हिमानी नियंत्रण का सिद्धांत

 अवतलन का सिद्धांत 

                                  अवतलन सिद्धांत को 1837 ई० में चार्ल्स डार्विन महोदय ने मार्शल द्वीप समूह के बिकनी द्वीप के संदर्भ में प्रस्तुत किया। कालांतर में अमेरिकी भूगोलवेत्ता 1883 में डाना, डेविस(1928), मोनार्ड(1964) इत्यादि ने सिद्धांत का समर्थन करते हुए कई प्रमाण प्रस्तुत किया। 
                                     अवतलन के सिद्धांत के अनुसार प्रारंभ में प्रवाल जीवों का विकास किनारे पर तटीय प्रवाल के रूप में होता है। लेकिन जब किसी कारणवश भूगर्भिक हलचल के कारण तटीय क्षेत्रों का धँसान प्रारंभ हो जाता है तो पॉलिप भोजन ग्रहण करने हेतु ऊपर की ओर विकसित होना शुरू हो जाते हैं, जिसके कारण धीरे-धीरे प्रवाल भित्तियों की मोटाई बढ़ने लगती है फलत: तटीय प्रवाल भित्ति अवरोधक प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है अंततः जब संपूर्ण भाग का धँसान क्रिया पूर्ण हो जाती है तो कहीं कहीं पर  प्रवाल भित्ति रिंग के रूप में दिखाई देने लगते हैं जिसे वलयाकार प्रवाल भित्ति कहते हैं। 
                                स्पष्ट है कि प्रवाल भित्तियों का विकास डार्विन के अनुसार क्रमिक रूप से होता हैसबसे पहले तटीय प्रवाल भित्ति ,उसके बाद अवरोधक प्रवाल भित्ति और अंत में वलयाकार प्रवाल भित्ति का विकास होता है। इसलिए अवतलन सिद्धांत को एक "उद्द्विदकासीय सिद्धांत" माना जाता है।

सिद्धांत के पक्ष में प्रस्तुत प्रमाण

                   डाना, डेविस, मोनार्ड एवं स्वयं डार्विन महोदय ने अवतलन सिद्धांत प्रमाणित करने हेतु कई प्रमाण प्रस्तुत किए। डेविस महोदय ने अपना प्रमाण "कोरल रीफ प्रॉब्लम" नामक पुस्तक में प्रस्तुत किया। 

जैसे :-

(i) डार्विन ने कहा कि वलयाकार प्रवाल भित्ति वहीं पर विकसित हो रहे हैं जहाँ पर द्वीप का क्रमिक रूप से धँसान हो रहा है। इसे बिकनी द्वीप के संदर्भ में अध्ययन किया जा सकता है। 

(ii) अवतलन/धँसान के कारण प्रवाल भित्ति की मोटाई और लैगून की गहराई में लगातार वृद्धि होती है लेकिन धँसान की क्रिया मंद होती है जबकि उससे तेज गति में प्रवाल का विकास होता है।

(iii) प्रवाल भितियों में अलग-अलग काल में निर्मित प्रवाल भित्तियों का स्तर पाया जाता है। जो अवतलन के पक्ष में सशक्त प्रमाण प्रस्तुत करता है। सोनार नामक यंत्र से जब हवाई द्वीप का अध्ययन किया गया तो वहाँ 330 मीटर गहराई तक अवतलन का प्रमाण मिला।

(iv) बिकनी और फुनाफूटी पर 700 मीटर गहराई कुएँ की खुदाई कर अवतलन का प्रमाण ढूंढा गया

(vi) जब यह स्पष्ट हुआ कि प्रवाल भित्तियों का निर्माण अवतलन से हुआ है तो प्रारंभ में यह अंदाज लगाया गया कि अवतलन वाले क्षेत्रों में पेट्रोलियम का संचित भंडार होना चाहिए इसी अंदाज प्रवाली द्वीपों पर तेल कुओं की खुदाई की गई तो वहाँ से खनिज तेल का प्रमाण मिला।

आलोचना/दोष

(i) सोलोमन द्वीप और पलाऊ द्वीप मिलने वाले प्रवाल भित्तियों की व्याख्या अवतलन सिद्धांत से नहीं की जा सकती है। 

(ii) डार्विन ने यह नहीं बताया कि समुद्री किनारों का अवतलन क्यों कब और कैसे हुआ। 

(iii) कई ऐसे प्रवाल भित्ति है जिनका निर्माण धँसान वाले क्षेत्र में नहीं बल्कि उत्थान वाले क्षेत्रों में मिलते हैं। जैसे ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर। 

(iv) यदि यह मान लिया जाए कि प्रवाल भित्तियों का क्रमिक विकास अवतलन से हो रहा है तो अब तक सभी प्रवाल भित्तियों को विलुप्त हो जाना चाहिए था। 

(v) अवतलन सिद्धांत में बताया गया है कि प्रवाल भित्तियों का विकास क्रमिक रूप से होता है। इसका तात्पर्य है कि एक समय में एक ही स्थान पर एक ही प्रकार का प्रवाल भित्ति मिलना चाहिए लेकिन कई क्षेत्र हैं जहाँ पर अनेकों प्रकार के प्रवाल भित्ति का प्रमाण मिलता है।

निष्कर्ष :
               उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि अवतलन सिद्धांत कुछ प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति की सटीक व्याख्या करता है। वहीं कुछ प्रवाल भित्ति के संदर्भ में इसके द्वारा सटीक व्याख्या नहीं होती है। फिर भी प्रवाल भित्ति की उत्पत्ति की दिशा में किया गया प्रथम सैद्धांतिक कार्य के रूप में इसे मान्यता प्राप्त है।

अटलांटिक महासागर के तलीय उच्चावच/BOTTOM RELIEF OF ATLANTIC OCEAN

हिंद महासागर के तलीय उच्चावच/BOTTOM RELIEF OF INDIAN OCEAN

प्रशांत महासागर के तलीय उच्चावच/BOTTOM RELIEF OF PACIFIC OCEAN

सागरीय जल का तापमान/Temperature of Oceanic Water

सागरीय लवणता /OCEAN SALINITY

महासागरीय निक्षेप /Oceanic Deposits

समुद्री तरंग /OCEAN WAVE

समुद्री  जलधारा/Ocean current

हिन्द महासागर की जलधारा / Indian Ocean Currents

अटलांटिक महासागरीय जलधाराएँ /Atlantic Oceanic Currents

प्रशांत महासागर की जलधाराएँ/Currents of The Pacific Ocean

ज्वार भाटा /Tides

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